इंसानी फ़ितरत है कि जब किसी चीज़ में हार का सामना करना पड़ता है तो मन में दुःख, क्रोध और द्वेष के भाव पनपते हैं। ऐसा होना स्वाभाविक भी है, जिस काम के लिए हमने मेहनत की हो, उसमें सफलता न मिले तो दुखी होना स्वाभाविक है। परन्तु सिक्के का दूसरा पहलू ये भी है कि सुख- दुःख कि तरह हार और जीत भी जीवन के अटूट अंग हैं। हार के बिना न जीत का कोई वजूद है न जीतने वाले का। फिर चाहे यह असफलता किसी छोटी-मोटी परीक्षा में हो या ज़िन्दगी के किसी अहम मुकाम पे। परन्तु किसी भी तरह की हार को दिल से लगा लेना, खुद को छोटा समझना, टूट जाना या दुनिया के तौर- तरीकों को गलत ठहराना कहाँ तक उचित है? मेरा मानना है कि अपनी हार को स्वीकार करके अपनी कमज़ोरियों और गलतियों को परखना और उनसे शिक्षा ले के अपने व्यक्तित्व का विकास करना ही ज़िन्दगी कि सबसे बड़ी सफलता है। गलतियां करने के बाद उनसे सीख लेने वाले को ही इंसान कहते हैं और यही इंसानियत का सबसे बड़ा सबूत है। पाठकों को यही कहना चाहती हूँ कि ज़िन्दगी में तुम्हें कहीं पे भी हार मिली है तो वो सिर्फ तुम्हे बेहतर बनाने के लिए है। और इतना याद रखना कि ज़िन्दगी जीतने वाले को नहीं, हारने वाले को चुनती है। वो सिर्फ उन्हें ही ये मौका देगी,जिसके लिए उसने इससे कुछ बड़ा सोच रखा होता है, बस मांगती है तो थोड़ी सी और चाहत और मेहनत। इसी विषय को ले के कुछ पंक्तियाँ लिखी हैं:
तूने क्या सोचा???
तेरे प्रहार मेरे मनोबल को तोड़ देंगे?
या मेरे आत्मविश्वास को आसानी से निचोड़ लेंगे?
आज़मा के देख ले ‘ज़िन्दगी’ !!
तू पर्वत बन कर खड़ी होगी,
मैं ठंडी बयार सी बहती हुई धीरे-धीरे तेरी परतें उड़ा दूंगी।
तू ज्वाला बन के बढ़ेगी,
मैं बारिश बन कर धीरे-धीरे तुझे बुझा दूंगी।
तू जितना तड़पाएगी,
मैं परिपक्व होती जाऊंगी।
तू जितनी बार गिराएगी,
मैं ऊँची उठती जाऊंगी।
तू जितनी बार गिराएगी,
मैं ऊँची उठती जाऊंगी।
चाहे सपने टूटे या कोई साथ छूटे,
तेरे हर वार पे मुस्कुराती जाऊंगी।
जितनी बार अँधेरे में धकेलेगी,
दीपक कि हलकी लौ से ही रोशनी करती जाऊंगी।
हर इम्तिहान के लिए तैयार हूँ,
अब देखना ये है, कि तू मुझे दोबारा गिरा पायेगी?
कितना ही कष्ट दे ले,
एक दिन तू भी थक जायेगी,
पर मैं तब भी बिना किसी शिकायत,
मुस्कुराती हुई मिलूंगी,
उस दिन सारी दुनिया,
बल्कि मेरा भगवान् भी कहेगा,
कि तूने क्या जिया?
जीवन ने तुझे जिया!!