Thursday 6 April 2017

मुम्बई लोकल का सफर

शाम को ऑफिस से निकलते ही मैं रोज़ की तरह स्टेशन की तरफ भागी | अब तो कुछ सोचना ही नहीं पड़ता, अपने आप पाँव उठते रहते हैं अपने रस्ते | अब आदत जो हो गयी है इनको भी |

प्लेटफार्म पर पहुँच के वही रोज़ वाली लोकल, और वही डब्बा, वही चेहरे और वही एक जगह : दरवाज़े के पास सट के खड़े हो जाना |

बचपन से ही ट्रेन का सफ़र बहुत पसंद है मुझे | पर मुम्बई लोकल का सफ़र बस ट्रेन का सफ़र नहीं है, ये तो एक अनुभव है | एक ही रास्ता मुझे हर रोज़ अलग-अलग ख़यालों में घुमाता है | चलती ट्रेन में खड़े हो कर ब|हर झांकती हूँ तो लगता है कहीं उड़ रही हूँ मैं और ये आवाज़- ये शोर मुझे उत्साह दे रहे हैं आगे बढ़ने का, उड़ते रहने का | पटरी पे चलती रेलगाड़ी का शोर ऐसे लगता है मानो मेरे पंखों का शोर है, हवा को चीरते मेरे पंख मुझे ऊपर, और ऊपर उड़ा रहे हैं | 

फिर अचानक जब दूसरी पटरी पर से ट्रेन निकलती है तो लगता है जैसे बहुत तेज़ आंधी आयी है, जो मुझे नीचे गिरा देना चाहती है | फिर उसके निकल जाने के बाद एक उपलब्धि का एहसास होता है कि मैं फिर उड़ने लगती हूँ |

इन्हीं खयालातों में डूबे फिर एक धक्का सा लगता है और मुझे हकीकत कि दुनिया में वापिस ले आता है | लोगों का शोर उत्साह के जगह ताने देने लगता है- "ऐ उतरो रे! ठाणे आ गया, पता नहीं कहाँ खोये रहते हैं !"